Tuesday, February 26, 2013

Roopkund The Mysterious lake





Roopkund the mysterious lake
Roopkund

Trek to Mysterious Lake

 Roopkund & Homkund

 
 
 
 
अगर आप High Altitude Trekking के बारे में सोच रहे है तो गढ़वाल हिमालय स्थित रूपकुंड रहस्यमयी कंकाल कुण्ड से बेहतर कुछ हो ही नहीं सकता।साल १९९५ हम सभी एक High Altitude Trekk करने के बारे में सोच रहे थे की किसी ने रूपकुंड के बारे में सुझाया और हमने जरा भी बिलम्ब नहीं किया इस ट्रैकिंग को अपनाने में। कुल टीम सदस्यों की संख्या ५ अरिंदम सरकार उम्र लगभग ६० वर्ष टीम  के मुखिया चुने गए दिप्तेश मंडल रोकडिया दीपक राय चोधरी टीम प्रबंधक और राम प्रसाद हालदार और मैं आम सदस्य के रूप में। तय हुआ यात्रा की शुरुआत अगस्त के मध्य में की जायेगी।
हम हावड़ा से अमृतसर मेल में सवार हुए और अगले दिन शाम को लखनऊ पहुंचे। रात का भोजन स्टेशन में करने के पश्चयात हम लालकुआ एक्सप्रेस में सवार हुए और अगले दिन भोर में लालकुआ स्टेशन पहुंचे। लालकुआ से हम राज्य सरकार द्वारा संचालित बस सेवा में सवार हुए अपने अगले पड़ाव ग्वाल्दाम के लिए।मौसम काफी सुहाना था आकाश में बादल छाये हुए थे मैं प्रकृति की सुन्दरता देख अवाक था मेरा यह पहला मौका था जब में ऊँचे ऊँचे पहाडो को इतने पास से देख रहा था मैं इन सारी बातो को सोच कर रोमांचित हो रहा था। हम शाम को ग्वालदम पहुंचे,समुन्द्र स्तर से १७०० मीटर की उंचाई पर स्थित ग्वालदम उत्तराखंड  के  चमोली जिला का एक छोट सा शहर है जो गढ़वाल और कुमायूं को जोडने वाली रूट ने पड़ती है। ग्वालदम से नंदादेवी(७८१७ मीटर), त्रिशूल (७१२०मीटर) और नंदा घुंटी (६३०९मीटर) का बहुत मनोहारी दृश्य साफ़ दिखाई देता है। 
 
हमने होटल में एक कमरा भाड़े पर लिया और अपने ट्रेक के लिए दो कुली(porter) और एक पथप्रदर्शक(Guide) भी लिया अपने ट्रेकिंग के लिए कुछ खरीदारी करने के पश्च्यात हम सोने चले गए।  

अगले दिन हम जल्दी उठ गए थे क्योकि पिछले रात हम लोगो ने निश्चय किया था की सुबह के पहले बस से हम लोहाजंग के लिए निकल पडेगे लेकिन जब हम बस पड़ाव पहुंचे तब पता चला रात को भूमिधर्षण(land slide) के कारण  कोई बस नहीं जा रही है। तभी हमें पता चला एक ट्रक लोहाजंग जा रहा है हमने उसके चालक से अनुरोध किया की वो हमें भी साथ ले चले और वो राजी हो गया ! पहाड़ो और घाटियों की सोन्दर्य ने मेरे होश उडा दिए। हम दोपहर तक लोहाजंग पहुंचे।लोहाजंग(८३००फीट) हिमालय की गोद में बसा हुआ एक छोट सा पास(pass) है जो की कर्णप्रयाग से ८५ किलोमीटर की दुरी पर है।

ट्रेक का पहला दिन : रात हमने गाँव के एक घर में बिताया रात में काफी ठण्ड भी बढ़ गयी थी। अगले दिन हमें वान गाँव के लिए प्रस्थान करना था जो की ६ किलोमीटर का एक आसान चढ़ाई कुल्लिंग गाँव तक और उसके बाद रोंन बगड़ तक कड़ी चढ़ाई। अगर आप रोड रूट लेते जो की कर्ज़न ट्रेल से आसान है लेकिन आप जंगल के दृश्यों और सुन्दरता को आप करीब से नहीं देख पाएंगे। आखिरकार ६ से ७ घंटे की यात्रा के बाद हम खुबसूरत  वान गाँव पहुंचे। वान में हम राज्य सरकार द्वारा संचालित पर्यटक बंगला में ठहरेI रात के भोजन की जिम्मेवारी मेरे ऊपर पड़ी क्योंकि हमारे टीम के किसी भी सदस्य को खाना बनाना तो दूर स्टोव तक जलाना नहीं आता!! हमारे टीम सदस्यों ने सुझाया की खाना बनाने की जिम्मेवारी हम कूली और गाइड पर छोड़ देते है लेकिन मैंने मना कर दिया क्योंकि वो काफी गंदे दिख रहे थे! शाम का दृश्य काफी मोहक था और हम अपने बंगले के बागीचे में बैठे उसका लुत्फ भी उठा रहे थे की अचानक बूंदा बांदी होने लगी हमारे गाइड ने मज़ाक में कहा" बॉम्बे का फैशन और पहाड़ के मौसम का कोई ठीक नहीं कब बदल जाये " दिप्तेश मंडल जो की हमारे  टीम में तुकबंदी करने के लिए मशहूर है अपने सारे दिन के अनुभव को अपनी डायरी में उतार रहे था , मैंने भी अपने साथ लाये पोस्ट कार्ड को निकाल और अपने घर एक चिठ्ठी लिख कर अपने बंगले के केयर टेकर को दे दिया उसे पोस्ट करने के लिए यह अलग बात है की वो पत्र हमारे कोलकाता पहुचने के महीनो बाद मुझे ही मिला!! 
ट्रैकिंग का दूसरा दिन :अगले दिन हम ज़रा देर से उठे क्योंकि पिछला दिन हमारे ट्रेक का प्रथम दिन होने के कारण काफी थकाऊ था। सुबह नूडल्स और सोयाबीन  का नास्ता करने के बाद करीब ७ बजे हमने अपने  सफ़र का शुरुआत किया। हमारे सफ़र शुरू करने के पहले दीपक ने कहा था "तुई किछु दोखता पाता  निये निस"(तुम कुछ तम्बाकू या खैनी का पत्ता अपने साथ ले लेना)अब जाकर मुझे पता चला की उसने ऐसा क्यों कहा था क्योंकि वान से लेकर बेदिनी बुगियाल तक का रास्ता 'जोक' से भरा हुआ है  हमारे साथ श्रीनगर की एक टीम भी बेदिनी जा रही थी और रह रह कर 'उह' 'आह' 'आउच' की आवाज़ जोक के काटने के कारण निकाल रही थी। हम देख रहे थे की जोक हमारे जूते और पतलून पर चढ रहे थे पर क्या मज़ाल की वो हमारे रक्त का स्वाद चख सके "दोखता पाता" जो हम लगा रखे थे!!लगभग तीन घंटे की यात्रा के बाद हमने दोपहर का खाना जो की कुछ मुरीभाजा और चनाचूर था किया। करीब २.३० हम बेदिनी बुगियाल पहुंचे।

बेदिनी बुगियाल, (बुगियाल यानी उचाई पर बसा चारागाह) भारत के खुबसूरत चारागाहों में से एक है। यह हिमालय के सबसे रोमांटिक जगहों में से एक है। दूर दूर तक फैला हरियाली और चारो तरफ ऊँचे ऊँचे पहाड़ी सृगला जिनमे त्रिशूल का पश्चमी हिस्सा है यहाँ से दिखाई देता है। उत्तराखंड के सबसे बडे चारागाह होने के साथ ही यह प्रत्येक १२ साल में होने वाला "नंदा राज जाट"  यात्रा का एक मुख्य पड़ाव भी है।

बेदिनी बुगियाल (११५००फीट )एक खुबसूरत और विभिन्न फूलो से भरपूर चारागाह  है यहाँ एक छोटा कुण्ड भी है जहां भक्त यात्रा के दौरान तरपन करते है पास ही नंदा देवी का छोटा सा मंदिर  भी है जहाँ भक्त अपने आवास के समय पूजा करके जाते है।

यहाँ की सुन्दरता देखने के बाद हम अपने सारे दिन का तकलीफ और दर्द भूल गए। पहले मैंने सभी के लिए चाय बनाया और कुछ चाय मैंने हमारे पीछे आ रही श्रीनगर के टीम के लिए रख दी क्योंकि पहाड़ में आपके बाद आने वाली टीम का स्वागत ऐसे ही किया जाता है। इसके बाद मैंने अपने सोनी वॉकमेन को अपने कान में लगा चारो तरफ दौडने लगा मुझे ऐसा लग रहा था मानो मैं स्वर्ग में हूँ दुनिया की कोई भी जगह इस जगह से खुबसूरती में मुकाबला नहीं कर सकती ! हम जल्द ही सोने चले गए क्योंकि कल हमें "पाथर नाचनी" होकर "बघुआ बासा"  जाना था। 
तीसरा दिन :  आज हमने बघुआ बासा तक जाने का कार्यक्रम बनाया आमतौर पर ट्रेकर पाथर नाचुनी में कैंप लगाते है ताकि ऊंचाई के साथ अपने आप को ढाल सके लेकिन हमने एक ही दिन में बघुआ बासा जाने का मन बनाया। करीब डेढ़ घंटे की ट्रेक के बाद हम पाथर नाचुनि पहुंचे। मान्यता है क़ि  यहाँ के राजा वार्षिक तीर्थ यात्रा  के दौरान अपने राज नर्तकी की नृत्य में इतने खो गए क़ि नंदा देवी की पूजा करना भूल गए। उनके इस कृत्य से नंदा देवी नाराज़ हो गयी लेकिन राजा  के क्षमा याचना से नंदा देवी ने उन्हें माफ़ कर दिया लेकिन आगे से ऐसा न हो इसलिए सारे नर्तकियो को देवी ने पत्थर का बना दिया। यहाँ बडे बडे आदम आकृति के पत्थर है जो क़ि इस लोककथा  को सही ठहराते है। हमने हल्का नाश्ता किया और "कालू विनायक पास" की तरफ बढ चले। पाथर नाचुनी से कालू विनायक तक की खड़ी चढ़ाई हमें एक और मजेदार लोककथा तक ले गयी मान्यता है की भगवान गणेश इसी स्थान पर प्रहरी बन कर खड़े थे जब माता पारवती रूपकुंड में स्नान कर रही थी। इस स्थान से पहली बार आपको रूपकुंड का हिस्सा दिखाई देगा।पास के थोडा और करीब जाने पर हम बघुआ बासा पहुंचे जिसका सांकेतिक अर्थ "बाघ का वास स्थान" है।यह वही स्थान है जहां देवी पार्वती ने अपने वाहन को छोड़ रुपकुंड स्नान करने गयी थी। हमारा बेदिनी से बघुआ बासा आने का निर्णय मेरे पर बहुत भारी पडा  क्योंक़ि अधिक उंचाई(high altitude)के कारण मुझे चक्कर और पेट में दर्द होने लगा था बघुआ बासा में हमने अपना तंबू लगाया। 
सारी रात में दर्द से सो नहीं पाया दुसरे दिन जब में उठा तो मैं अपने तम्बू के चारो तरफ फूल ही फूल देख कर मैं दंग रह गया हमारे गाइड ने बताया यह ब्रह्मकमल है।ब्रह्मकमल हिन्दुओ के सृष्टिकर्ता  देवता ब्रह्मा के नाम पर है और इसे काफी पवित्र माना जाता है यह काफी उंचाई पर पाया जाता है और यह उत्तराखंड राज्य का राजकीय पुष्प भी है। 

चौथा दिन : अपना नाश्ता करने के पश्च्यात हम धीरे धीरे रहस्यमयी कुण्ड की तरफ बढ़ने लगे आज हल्की  हल्की बारिश हो रही थी करीब दो घंटे चलने के बाद हम रूपकुंड(१६५००फीट) पहुंचे . जब देवी पार्वती और महादेव कैलाश (या शायद त्रिशूल पर्वत) जा रहे थे तो माता पार्वती दैत्यों का नाश करने के बाद काफी मलिन महसूस कर रही थी और स्वच्छ होना चाहती थी तो महादेव ने अपने त्रिशूल से इस कुंड का निर्माण किया इसके नील और स्वच्छ जल में स्नान करने के पछच्यात पार्वती ने अपने रूप का प्रतिबिम्ब इसमे देखा इसलिए इस कुण्ड का नाम रूपकुंड पडा।  

रूपकुंड में ५०० से ६०० वर्ष पुराने नरकंकाल मिलते है। इन नरकंकालो के मिलने का यहाँ पर कई तरह की मान्यताये और मिथक है।कुछ कहते है तुगलकी सेनापति जोरावर सिंह के दंड से बचने के लिए उनके पनाहगीर भाग रहे थे रास्ते में हिम संखलन से उनकी मौत हो गयी।दुसरे का मानना है क़ि प्राकृतिक आपदा के कारण तिब्बती सौदागरों का यहाँ मृत्यु हो गया होगा।एक और मान्यता के अनुसार  कन्नोज के राजा जसदल अपनी पत्नी के साथ ५६० साल पहले नंदा देवी को प्रसन्न करने के लिए तीर्थ यात्रा जिसका नाम "नंदा जाट" था पर जा रहे थे रास्ते में उनकी पत्नी ने एक बच्चे को जन्म दिया इस स्थान की पवित्रता नष्ट होने से नंदा देवी काफी क्रोधित हो गयी और उन्होंने बर्फीले तूफ़ान को भेज सब को नष्ट कर दिया। अभी तक पुरात्तव बिभाग को जो कलाकृति यहाँ से मिली है उस हिसाब से "नंदा जाट" वाला संस्करण ज्यादा प्रासंगिक लगता है फिर भी इस अनसुलझे रहस्य को जानने की जिज्ञासा बनी रही है।

अपना कुछ समय यहाँ बिताने के बाद हम अपने अगले गंतव्य शिला समुन्द्र(१२००२फीट) की तरफ बढ़ चले।हम एक और ऊँची चढ़ाई जुरंगालीधर(Jurangalidhar)जिसका शाब्दिक अर्थ है म्रत्यु पास!!यहाँ से त्रिशूल और नंदा घुंटी  काफी साफ़ दिखाई देते है। एक सीधी उतराई हमें शिला समुन्द्र पहुंचा देगा।हमने अपना तम्बू एक बडे शिला के निचे लगाया/ लगातार हो रही बारिश ने हमारे कपडो और सारी चीजो को भीगा दिया था। हमारा अगला पड़ाव होमकुंड था लेकिन हमने एक दिन यही बिताने का निश्चय किया ताकि हम अपने कपडे और सामान को सुखा सके। 

एक दिन शिला समुन्द्र में रुकने का हमारा निर्णय ठीक साबित हुआ अगला दिन धुप खिल कर निकला था और आकाश काफी साफ़ था। हमारे तम्बू के पास ही हिरनों का झुण्ड अपना डेरा डाले हुए था। मैं अपना कैमरा ले घास में सरकते हुए उनके पास जा तस्वीर खीचने की कोशिश कर रहा था क्योंकि मेरे  कैमरा में ज़ूम नहीं था।


पांचवा दिन : हम ९.३० बजे तैयार हो चल पडे। यह एक बीस तीस मिनट का आसान उतराई वाला रास्ता था जो त्रिशूल के वास्तविक ग्लेशियर तक ले जाता था। 

हमें करीब एक घंटे से ज्यादा का समय लगा इस शिला के समुन्द्र को पार करने में उसके पश्च्यात हमें एक पहाड के मेढ़(ridge) पर चढना था जो हमें दोदांग तक ले जाता। यहाँ तक हम नंदाकिनी नदी के किनारे किनारे चल रहे थे यहाँ से हमें चंदनिया घाट दिखाई दे रहा था जो हमारा अगले दिन का पड़ाव होने वाला था।

अब हम नंदाकिनी नदी के साथ साथ बड़े बड़े चट्टानों पर चल रहे थे चल रहे थे। हम धीरे धीरे चल रहे थे क्योंकि कुछ भी पद चिन्ह नज़र नहीं आ रहा था कभी हम मेढ़ के ऊपर चढ़ जाते और कभी नदी के पास उतरना होता। एक न एक बार सभी यहाँ फिसले लेकिन भाग्यवश किसी को चोट नहीं पहुंची ऐसी ही एक चढ़ाई में दिप्तेश का पैर फिसल गया लेकिन हमारे गाइड ने उसे बचा लिया यह काफी डरावना क्षण था।

हम अपने कैंप दोदांग(१३७००फीट)करीब २.३० बजे पहुंचे . दोदांग का शाब्दिक अर्थ है "दो पत्थर" हमने दो बडे पत्थरो के बीच अपना कैंप बनाया।

 

यह कैंप नंदाघुंटी के आधार तल पर था हम संकरी खाड़ी में बैठे थे और नंदाघुंटी हमारे ऊपर थी! 
 

 
होमकुण्ड तक का यह रास्ता एक और कारण के लिए भी विख्यात है प्रत्येक १२ साल पर होमकुंड तक "नंदादेवी राज जाट यात्रा" जो नव्टि(Nauty) नामक एक गाँव से एक चार सिंघो वाला भेड़ के साथ निकलता है। नंदा देवी की मूर्ति बेदिनी बूगियाल तक लाया जाता है और वहाँ से होमकुंड लाकर देवी पार्वती और शिव के विवाह का जश्न मनाया जता है। इन सब उत्सव के बाद चार सिंघो वाला भेड़ यही कही पहाड़ में गायब हो जाता है !!हजारो की संख्या में श्रद्धालु इस तीर्थ में भाग लेने के लिए देश के कोने कोने से आते है। बहुत से श्रधालु बिना किसी चप्पल के यहाँ तक आते है. होमकुंड इस लिहाज से काफी पवित्र स्थान है
 
आज की रात हमारे ट्रेक के सबसे ठंडी रात थी। हमारी तम्बू के पास से बहने वाली संकरी नदी भी रात में जम गयी थी। बर्फीली हवाओं ने हमारो पास रखे पानी तक को जमा दिया था। अगले दिन हमने ५.३० बजे अपनी यात्रा का समय निश्चित किया था।  
 
छठा दिन:हमें पता था आज का दिन काफी थकाऊ होगा और इसके लिए हम मानसिक तौर पर तैयार थे। हमारा प्लान था क़ि हम होमकुंड(१५२००फीट)जायेंगे जो दोदांग से करीब ४ किलोमीटर है ,उसके बाद रोंटी सैडल(१७५००फीट)की चढ़ाई ,उसके बाद दोदांग वापस आकर दिन का खाना उसके बाद हमारा अगला कैंप चंदनिया घाट। 
हम सुबह साढे चार बजे उठे और तैयार हो गए आज काफी ठण्ड था और हम सूरज निकलने की प्रतीक्षा कर रहे थे और साढे पांच बजे हम अपने मंजिल की तरफ बढ चले। 


 

कैंप के तरफ से करीब तीस मिनट खड़ी चढ़ाई थी और इसके बाद मेढ़(ridge walks) की डरावनी यात्रा !मेढ़
(Ridge)की चोड़ाई काफी कम थी एक बार में केवल एक ही कदम डाल सकते थे। हम लोग काफी सावधानीपूर्वक चल रहे थे और आस पास देखना बहुत ही हिम्मत का काम था। यह काफी डरावना था और बहुत सावधानी की ज़रूरत थी। मैं अत्यधिक ठंड से कांप रहा था मैंने अपना हाँथ का दस्ताना भी रास्ते में गिरा दिया था और ठण्ड के कारण मेरा हाथ सुन्न हो गया था इसलिए मुझे पता भी नहीं चला। 
 
 

 
 

 
हम पवित्र होमकुंड करीब सात बजे पहुंचे यह एक अद्भुत अनुभूति थी ऐसी जगहों में आपको उस सर्वशक्तिमान के वास की अनुभूति होती है जो इस जग का पालनहार है।हम काफी खुश थे क़ि हम यहाँ तक पहुँच गए। यहाँ एक छोट सा मंदिर है हमारे गाइड ने यहाँ पूजा किया और साथ में लाये टाफियो का प्रसाद चढ़ाया। हमने कुछ समय यहाँ बिताया हमारे साथ आये गाइड ने हमें राज यात्रा के महत्त्व के बारे में बताया और कुण्ड के आस पास घुमाया। कुण्ड आंशिक रूप से जमा हुआ था लेकिन कुण्ड का जल काफी साफ़ और स्वच्छ था। मेरे दोनों हाथ ठण्ड से नील पड गए थे उसी समय हल्के बर्फ के साथ बारिश की शुरुआत हो गयी और आगे रोंटी सैडल तक जाना था मेरी अवस्था को देख सभी ने मुझसे पूछा कि हम आगे बढे या नहीं?क्योंकि मौसम भी बिगड़ता  जा रहा था हमारे गाइड ने भी कहा कि हमें जोखिम नहीं उठाना चाहिए लेकिन मैंने कहा अगर सब जाना चाहते है तो मुझे कोई आपति नहीं है मैं भी चलूँगा लेकिन बाद में सब की सहमति से हमने रोंटी सैडल जाने का विचार त्याग दिया। 


 
हम अपने कैंप लौट आये मुझे काफी ठण्ड लग रही थी और मेरे हाथ सुन्न होते जा रहे थे मैंने अपने दोनों हाथ गर्म पानी में डुबा दिए "आह, कितना आराम!!" सारा दिन बारिश होता रहा हम भोजन कर अपने तम्बू में बैठ गए सारी  रात मैं ठण्ड के कारण सो नहीं पाया और उपर से बारिश की बूंदों की आवाज!

 
सातवा दिन : आज अद्भुत दिन था आकाश इतना साफ़ और तरह तरह के रंगों से भरा हुआ!! हम अपने कैंप लाट खोपड़ी करीब पांच घंटे की ट्रेकिंग के बाद पहुंचे। अपना तम्बू हमने नदी के पास लगाया और रात का खाना खा जल्दी सो गए कल हमें सुबह जल्दी उठ कर अपने अगले पड़ाव सुतोल जाना है। 


आठवा दिन :हम साढे छ बजे तैयार हो गए थे क्योंकि गाइड ने कहा था सितेल के पास खड़ी चढ़ाई है और इसे हमें सुबह जल्दी पार कर लेना चाहिए 

 
 

आज की यात्रा हम पदचिन्हों को पकडकर कर रहे थे जो ग्रामवासी के नियमित आवागमन से बन गया था  छोटी चढ़ाई के बाद हम सूतोल गाँव पहुँच गए थोड़ी देर चलने के बाद हमें थोड़ा उतरना पडा और उसके बाद फिर कड़ी चढ़ाई . करीब आधे घंटे की चढ़ाई के बाद हम एक मंदिर के पास पहुंचे इस स्थान से हमें और तीन किलोमीटर जाना था . सोंभाग्य से सितेल के पास करीब ११ बजे  हमें जीप मिल गया जो हमें दोपहर तक घाट ले आया। हमने वन बिभाग का बंगला किराए में लिया यह काफी बडा था।   

 

अगले दिन हमने जीप किराए पर लिया और कर्णप्रयाग चले आये। 


यह ट्रेक हमेशा मेरे हृदय के पास रहेगा। संपूर्ण ट्रेक हरियाली,बर्फ , शिला ,हिमनदिय का मिश्रण था।आप पहाडो को बिना अधिक उंचाई पर गए इतना करीब से महसूस कर सकते है।ज्यादातर समय हम विशाल पहाडो(त्रिशूल, नंदा घुंटी) के मध्य घुमते रहे। आध्यात्मिक तौर पर भी यह ट्रेक मेरे लिए महत्वपूर्ण था  होमकुंड जैसा मनमोहक जगह मैंने इस ट्रेक के दौरान देखा मुझे यह कहते हुये काफी हर्ष होता है की मैं खुशनसीब था जो इन जैसे टीम  सदस्यों का मुझे साथ मिला। इस तरह का ट्रेक कभी भी मुमकिन नहीं है अगर आपको ऐसे सदस्य नहीं मिले क्योंकि आपको बहुत कुछ सिखाने को मिलता है अपने साथियो से।

अगर आप मुझसे पूछेंगे कि क्या यह ट्रेक नए लोगो के लिए मुमकिन है? मैं कहूंगा हाँ क्योंकि यह मेरा भी पहला ट्रेक था लेकिन आपको थोडे शारीरिक और मानसिक शक्ति की आवश्यकता जरूर पड़ेगी।

अपनी प्रतिक्रिया अवश्य वयक्त करे

By राजेश साव 
 

No comments:

Post a Comment