Friday, April 8, 2016

माठा - अजोध्या पहाड़ ट्रैकिंग 



गर्मी के इस चिलचिलाती धुप में ३९ ढीठ लोगो का जत्था ट्रैकिंग के लिए निकल पड़ा ! ढीठ ? जी हाँ ढीठ क्योंकि ऐसे मौसम में सिर्फ इस मिज़ाज के ही लोग अपने पीठ पर बीस किलो का बोझ लाद ४२ डिग्री के तापमान में सारा दिन चल सकते है या फिर पागल किस्म के लोग !!
३९ लोगो का जत्था दो भागो में माथा के लिए रवाना हुआ एक २२ मार्च को जिसमे १५ लोग थे बाकी २३ मार्च को जिसमे २४ लोग थे।
हावड़ा चक्रधरपुर फ़ास्ट पैसेंजर से हम  स्टेशन सुबह करीब ८  बजे पहुंच गए। 



  
बराभूम स्टेशन से हम दो गाड़ी में सवार हो माथा पहाड़ चल दिए।  पहला जत्था हमारे लिए नास्ता बना कर हमारा इंतज़ार कर रहा था 




अपना नास्ता ख़त्म कर हम जल्दी जल्दी तैयार हो कर  दो भाग में बंट गए एक जिसे माथा पहाड़ के ऊपर जाना था और दूसरा जिसे रॉक क्लाइम्बिंग और बॉल्डेरिंग का अभ्यास करना था।
 




शाम तक अभ्यास करने के बाद हम अपने कैंप एरिया में लौट आये और रात के खाने की तैयारी में जुट गए।  रात का खाना खाने के बाद हमने दूसरे दिन के पैक फ़ूड को तैयार किया जिसे लेकर हमे ट्रैकिंग करना था।  
सुबह से ही जंगल में आग लग गया था जो रात में दूर से ही लाल रंगत में दिखाई दे रहा था।  जो दिखने में तो खूबसूरत था लेकिन उतना ही भयावह !




दूसरे दिन हम अपने अगले गंतव्य "कूदना" गाँव के लिए चल पड़े।  जंगल में चारो तरफ आग ही आग लगी हुयी थी और जहां आग नहीं था वहा जले हुए राख थे। तापमान भी अपने पुरे शबाब पर था !






 
 दोपहर तक हम अपने गंतव्य "कूदना" गाँव पहुंच गए और एक स्थानीय स्कूल में हमने अपने ठहरने का प्रबंध किया। 



दूसरे दिन हम अपने अंतिम पड़ाव अजोध्या के लिए रवाना हो लिए।  आज तापमान कल से भी ज्यादा था और चढ़ाई भी !! हम आराम करते हुए और सुस्ताते हुए बढ़ रहे थे।  अक्सर हम कहते है हमे नए नए जगह घूमना चाहिए और ज़िन्दगी के नए रूप की तलाश करनी हो तो आप देशाटन करो , लेकिन इस धुप में जब आप के पीठ पर २० किलो का बोझ हो और सूरज भैया गुस्से में लाल हो तो ज़िंदगी नहीं मौत दिखाई देती है मुझे इसी माहौल में एक हिंदी गाना याद आ रहा था " ज़िन्दगी की तलाश में हम मौत के कितने पास आ गए हम.."






दोपहर तक हम अजोध्या पहाड़ पहुंच गए।  अजोध्या पहाड़ पर एक बहुत ही पुराना आश्रम है हम जब वहा पहुंचे तब वह यग्न हो रहा था और महाभोग  की तैयारी चल रही थी।  उस आश्रम के संचालक ने हमे प्रसाद और दोपहर का खाना खाने के लिए आमंत्रित किया जिसे हमने सहर्ष स्वीकार कर लिया ! इससे हमे दो लाभ हुए पहला हमे दोपहर के खाना बनाने से मुक्ति मिल गयी और प्रसाद भी मिल गया जिसे हमने ईश्वर का वरदान समझ ग्रहण कर लिया। 










प्रसाद ग्रहण करने के बाद हमने दो गाडी भाड़े में लिया और सवार हो पुरुलिया स्टेशन के लिए चल दिए जहाँ से हमारी ट्रैन रात ८ बजे थी। स्टेशन पहुँच हमने रात का खाना खरीद कर रख लिया जिसे हमने  ट्रैन मैं बैठ कर खाया और उसके बाद थके होने के कारण हमे जल्द ही नींद आ गयी और जब आँख खुली तो तो ट्रैन हावड़ा पहुँच चुकी थी !!



Monday, February 22, 2016

छोटी शीतला माँ. . . .!


मेरे एक मित्र है उनका भी नाम राजेश है ..! पिछले हफ्ते उन्होंने मुझे फ़ोन कर शीतला माता के स्नान उत्सव में भाग लेने के लिए आमंत्रित किया मैंने भी सहर्ष उनका आमंत्रण स्वीकार कर लिया।  उन्होंने बताया माघ महीने के पूर्णिमा के रोज माँ शीतला का स्नान उत्सव होता है।  उस रोज मेरे मित्र कुछ और लोगो के साथ मिलकर उत्सव में आने वाले श्रधालुओ के लिए खाने पीने का प्रबंध करते है ताकि भक्तो को किसी भी प्रकार की तकलीफ न हो। खैर मैं नियत समय पर उअनके निवास स्थान पहुँच गया।


 इस बार पूर्णिमा रविवार के रोज़ होने के कारण भक्तो की काफी भीड़ थी। लोग दोपहर से ही माँ के दर्शन हेतु दूर दूर से नए परिधान पहन कर आ रहे थे। मेरे मित्र ने आने वाले श्रधालुओ के लिए शरबत और चाय का व्वयवस्था कर रखे थे। करीब पचास लोग भीड़ में आ रहे लोगो को चाय और शरबत बाँट रहे थे !

 हावड़ा के सलकिया में स्थित छोटी शीतला माँ का मंदिर बहुत ही जाग्रत है।  कहते है सच्चे मन से आप माता से जो भी मांगेगे वह मनोकामना पूरी होगी !




इस माघी पूर्णिमा स्नान के पीछे कई कथाये प्रचलित है। छोटी माता को स्नान के लिए  नहीं निकाला जाता है बल्कि आस पास से बाकी माताओ की झांकी पालकी में सज कर निकलती है और छोटी माता के पास स्नान कर आती है। कहते है माता की कुल सात बहने है, वह सभी इनसे मिलने  माघ पूर्णिमा के दिन आती है। छोटी माँ स्नान करने नहीं निकलती है क्योंकि वह जब भी निकलती थी खो जाती थी। इसलिए वह स्नान करने नहीं निकलती है। दूसरी कथा के अनुसार एकबार छोटी माता अपनी बहनो के साथ स्नान करने जा रही थी तब किसी ने उन्हें देख लिया था। इसलिए छोटी माता ने सपने में अपने भक्तो को दर्शन देकर कहा उन्हें स्नान के लिए न निकला जाये। करीब सौ साल पहले माता को स्नान के लिए निकला गया था तब तब मंदिर की परिचारिका निरुपमा बनर्जी की छोटी बहन की बहुत कम उम्र में ही अकाल मृत्यु हो गयी थी। अगले वर्ष स्नान के बाद शीतला बाड़ी के किरायेदार की अकाल मृत्यु हो गयी! उसके बाद वाले साल माता के स्नान के लिए उनके सिहांसन को उठाने की कोशिश की गयी परन्तु सिहांसन टस  से मस नहीं हुयी तब से छोटी माता को स्नान के लिए नहीं निकला जाता है। 





स्नान वाले  दिन छोटी माँ का कलश लेकर गंगा जल से भर कर उसे मंदिर में स्थापित किया जाता है।  पुराने कलश को सात दिन रखने के पश्च्यात गंगा में विसर्जित कर दिया जाता है।  स्नान यात्रा के दिन माँ को गोमूत्र से शुद्धिकरण किया जाता है सिर्फ इसी  दिन ही माँ लो छूने की छूट रहती है।  स्नान वाले दिन भक्त जन गंगा में स्नान कर शाष्टांग दंडवत कर मंदिर में आते है और माँ का दर्शन कर पूजा करते है।




दोपहर होते होते भक्तो की भीड़ उमड़ने लगती है। पहले सिर्फ सात माताये ही आती थी लेकिन अब इनकी संख्या ६० के भी उपर हो चुकी है। सब माँ के आने के बाद बड़ी माँ आती है और स्नान उत्सव ख़त्म होता है।   







दिनांक २१ फरवरी २०१६